दान और भौतिक प्रकृति के तीन गुण(सतो,रजो,तमो)छोटी सी चींटी से लेकर महान ब्रम्हाजी तक इस विशाल ब्रहाण्ड में हर कोई जो भी कर्म करता है वो सभी कर्म प्रकृति के तीन गुणों में से किसी न कसी गुण के वशीभूत हो कर करता है l जब हमारी वृत्ति सतोगुणी होती है तो हम अच्छे काम करते है जैसे दान , पूजा ,हवन …… जब हम रजो गुण में स्थित होते है तो ऐसे कर्म करते है जिनके करने से हमारे भोग विलास की वृद्धि होती है शॉपिंग -मॉल , सिनेमा , ब्यूटी पार्लर्स ….. जब हम तमो गुण में स्थित होते है तो हमारे कर्मो में सही और गलत का बोध नहीं होता और हम दूसरे से इर्षा करना , नशा करना , पर्याप्त से अधिक सोना (निंद्रा ), आलास करना और जुआ खेलना आदि में समय नष्ट करते है l . सभी जीव कभी सतो गुनी , कभी रजो गुनी और कभी तमो गुनी बर्ताव करते है जिस -से कर्म का फल भी कई प्रकार का होता है . सतो गुण का फल है स्वयं में दिव्य गुणों की वृद्धि , रजो गुण का फल है संताप और दुःख , तमो गुण का फल है रोग -बीमारिया , अ प यश , गरीबी आदि आदि . इस लिए हमे कर्म करते हुए हमेशा सावधान रहना चाहिए.
अब जैसे की दान रूपी कर्म की बारे में बात करते है . निश्चित रूप से दान देना सतो गुनी कर्म है . भगवद गीता में 16 और 17 चैप्टर में भगवान श्री कृष्ण दान के प्रकार समझाए है . प्रकृति के तीन गुणों जैसे; दान भी 3 प्रकार का होता है . सतो गुनी दान , रजो गुनी दान और तमो गुनी दान . तमो गुनी दान है ऐसी चीजों का दान करना जिन्हे हम फालतू मानते है और उनसे अपना पीछा छुड़ाना कहते है . जैसे घर की बाई तो पुराना सामान / कबाड़ फ्री में दे देना आदि .
रजो गुनी दान वह है जिसमे हम अच्छी वस्तुओ का दान करते है और बदले में कुछ लाभ पाना कहते है जैसे – शनि की शांति की लिए कड़वा तेल (mustered oil), काली तील या मंगल की शांति की लिए लाल अनाज का दान आदि आदि l सतो गुनी दान वह है जिसे करने की बाद हम किसी फल या फायदे की इच्छा नहीं करते . निष्काम भाव से किया गया दान सतो गुनी दान है l यह सभी प्रकारो के दान में श्रेष्ठतम प्रकार है l
तो अब तक हमने जाना की दान करे किन्तु निष्काम भाव से . तो जब हम किसी गरीब या अनाथ को खाना खिलाते है और बदले में उस -से किसी लाभ की कामना नहीं करते तो ये सतो गुनी दान हुआ . किन्तु सतो गुण भी एक गुण ही है और उसका भी कुछ न कुछ अच्छा फल (पुण्य ) हम जरूर पाएंगे चाहे हम इच्छा करे या न करे और उस पुण्य कर्म का भोग करने की लिए हमें यहाँ पुनः जन्मा लेना ही होगा . इस प्रकार से हम कर्म के बंधन से मुक्त नहीं हो सकते . कर्मा दो प्रकार के होते है अच्छे और बुरे . दोनों प्रकार के कर्म बंधन का कारण है i. अच्छे कर्म (सतो गुनी कर्म ) सोने (Gold ) की जंगीर की तरह है और बुरे कर्म (रजो /तमो गुनी कर्म ) लोहे (iron) की जंजीर की तरह है . दोनों से बंधन निश्चित है . और अच्छे और बुरे कर्मो के फल के भोग के लिये हमें बार बार जन्मा भी लेने ही होगा. तो क्यों न ऐसा कर्म करे जिससे बंधन न हो . और दुसरो का भला भी हो जाये ; पर कैसे ?
भगवद गीता में भगवान् कृष्णा कहते है की हमें कर्मो का परित्याग करके कही एकांत में जा कर तपस्या करने नहीं बैठना है हमें केवल अपने सभी कर्मो को कृष्ण से जोड़ कर संपन्न करना है . हमें कृष्ण की प्रसन्नता के लिए कर्म करना है . जो भी चीजे भगवान के लिए उपयोग में लायी जाती है वो सभी चीज़े भगवन से अभिन्न है . वो सभी चीज़े भी भगवान की तरह ही पूजनीय है . जैसे यदि आरती की थाली में लात लग जाये तो हम तुरंत पाव छूते है मनो जैसे भगवान् को पाव लग गया हो . इसी प्रकार जब दान देने वाली वास्तु को पहले भगवान की बना लोगे और फिर दान देंlगे तो उसका फल पाने के लिए बार बार जन्म नहीं लेना पड़ेगा . क्यों की अब आप अपनी चीज़े दान नहीं कर रहे है आप भगवान् की दी हुई चीज़ ही भगवान् के बन्दों में निष्काम भाव से बाँट रहे है l. इस लिये अब बंधन भी नहीं होगा और न ही बार बार जन्म और मृत्यु होंगे l
तो गरीब और अनाथ को अन्न का दान करना बड़े पुण्य का काम है किन्तु उस गरीब से जन्मो -जन्मो तक का बंधन पाल लेना समझ -दरी नहीं है . अन्न को पहले भगवान् को अर्पित करे और फिर उस प्रसादी अन्न को लोगो में वितरित करे . इस प्रकार कर्म के बंधन में पड़े बगैर हम लोगो की सहायता कर सकते है l
ISKCON में ‘फ़ूड फॉर लाइफ ‘ प्रोग्राम के तहत फ्री अन्न प्रसाद का वितरण किया जाता है जो मानवता की सेवा है l वो भी कर्म एकत्रित किये बगैर l
दान देने के लिए सुपात्र का होना भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है . और शास्त्रों में कहा गया है की केवल अन्न दान एक ऐसा दान है जिसे करने के लिए पात्रता (सुपात्र /कुपात्र ) के विषय में विचार करने की आवशयकता नहीं है . किन्तु अर्थ दान सुपात्र को ही दिया जा सकता है , क्यों की यदि आप जिस किसी को भी जब धन दान में देंगे तो सोचने वाली बात है की वो उस धन का विनिमय किस वस्तु को क्रय करने में कर रहा है ? यदि वो दान राशि से शराब पिले या उसका उपयोग मासाहार खाने के लिए करे तो शास्त्र कहते है उस धन के विनिमय का फल दान दाता को भी भोगना पड़ेगा . इस प्रकार हमे किसी को भी मतलब कुपात्र को धन राशि दान में नहीं देनी चाहिए . भगवद गीता कहती है की श्रेष्ठ दान वह है जो मुक्त पुरुषो को किया जाये क्यों की उनका न तो खुद का कोई परिवार है न किसी से कोई भौतिक सम्बन्ध है , तो वे लोग जब आप का धन भगवान् की सेवा में लगाएंगे तो उसका कोई विपरीत परिणाम तो संभव हो ही नहीं सकता बल्कि यह तो एक प्रकार से भगवान की सेवा ही है . प्रत्येक रविवार को ISKCON मंदिरो में निः शुल्क प्रसादी भोजन वितरण किया जाता है . आप भी उसमे सहयोग करके बंधन मुक्त सेवा कर सकते है . एक बार वहां जो कोई भी जाता है चाहे वो भक्त न भी हो पर प्रसादी भोजन पाकर वहां से लौटे समय ये जरूर कहता है -‘ ये लोग बुरे नही है’
तो विचार करिये इन सभी बातो पर और दान देने के लिए ISKCON को चुनिए l
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे